लिख दूँ क्या कुछ भी मैं ?




ब्लॉग पोस्ट :-४६

लिख दूं क्या कुछ भी मैं ?
जो कभी था नहीं क्या कर दूँ बयाँ उसको भी
तुम्हे लगा की मैं गलत हूँ
क्या सही होकर भी मान लूं अपनी गलती मैं

किरदार तो मैंने भी अपना सलीका से निभाया
क्या करूँ अगर किसी को मैं न भाया
बदल दूँ क्या मैं खुद को दूसरों के लिए
बदल दूंगा खुद को तो क्या दे देंगे वो मुझे?

वो जो दोस्त तुम्हारे खुशी के वक़्त साथ होते तुम्हारे
क्या अपनी सारी दुखों को बांट पाते हो तुम उनसे
कभी आईना देख कर पूछना खुद से
फिर समझ आएगा हो तुम आखिर कितने अकेले

गलती तो सबसे होती है अनजाने में हमसे भी हुई
तो क्या उस गलती को लेकर ज़िन्दगी भर रोते रहें
दोस्त होते अगर तुम मेरे तो कब का कर देते माफ़ हमें
पर अक्सर दोस्त मतलब के यार ही मिलते

मैं हँसता नहीं ज़ायदा पर हमेशा दुखी हूँ ऐसा न समझना
ठोकरों के वजह से गिरा हूँ अपनी नज़रों से नहीं
दिन वो भी आएगा जब याद तुम भी कर रहे होगे हमें कहीं
वक़्त बदलता सबका है बस वक़्त अभी हमारा है नहीं

चंद दोस्त आज भी साथ हमारे बैठ जाते हैं
निराश न होना ऐसा कहकर हौंसला बढ़ाते हैं
अमावस्या के बाद चांद फिर रोशन होता है
काले बादल हैं अभी पर रोशनी का आना तय है

कलम हाथ में लेता हूँ जब भी मैं
कोर कागज़ देख कर याद हमेशा आती एक बात हमें
हर दिन भी तो होता है ऐसा ही एक नया सवेरा
फिर क्यों न अपने टूटे घर को ही बनाऊ अपना नया बसेरा

लिख दूँ क्या कुछ भी मैं
जो किया नहीं कभी तो कैसे मान लूं मैं
तुम्हे लगा की मैं गलत हूँ
क्या सही होकर भी मान लूं अपनी गलती मैं

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