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मैं बनूंगा बाबा की बैसाखी

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#Blog post no:- ४८ कंधे पर वो जब मुझे घुमाया करते बेसब्री से गर्मी की छुट्टियों का इंतज़ार किया करते देख कर मुझे जो खिल खिला कर हंस पड़ते वहीँ तो हैं मेरे बाबा एकलौते ढलती शाम और मेरी बेचैनी उनको देखने की दूर उनकी साइकिल देख कुछ हलचल सी होती मुझमें आते वो सेव बुनिया जो लेकर अपने झोले में बैठकर साथ उनकी हाथों से खाना वो बुनिया भी अमृत लगता रात को नींद न आती तो पंखा डुलाकर हमें सुलाते वो लोरी बहुत अलग थी जो बाबा थे हमे सुनते भोर होते ही साथ नदी पर जाते लौटते बख्त चाचा के दूकान से बर्फ का गोल चूसते आते अब जो बड़ा हो गया हूँ समय से लड़ना जो सीख रहा हूँ करवटें बदल बदल कर रातें हैं कटती बाबा आपकी लोरी है बड़ी याद आती एक रोज़ सब कुछ बदल सा गया जब स्टेशन पर उतर कर हमने उन्हें न पाया पहुंचा घर तो देखा चार पायी पर लेटे थे वो नम थी आँखें फीकी मुस्कान अब भी दे रहे थे वो भागता हुआ पहुंचा जब उनके पास मैं बोल पड़े वो चल नहीं सकता अब मैं आंसुओं को अंदर दबाकर हंस पड़ा मैं कह दिया चल पड़ोगे आप जब बनूँगा आपका बैसाखी मैं अब समय उनके इर्द गिर्द ही हमारे बीतते बीते दिनों की